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पक्षी के अंडे से चूज़े कैसे विकसित होते है


egg structure


 

पक्षी के अंडे से चूज़े कैसे विकसित होते है 


पक्षी चूज़े का परिवर्धन Development of Chick or Fowl

चूजे या साधारण कुक्कुट की भौणिको का अध्ययन करना ज्यादा बेहतर है 

क्योंकि इसके अनेक लाभ हैं। कुक्कुट या मुर्गी के अंडे आकार में बड़े होते 

हैं, पुरे वर्ष सुगमतापूर्वक उपलब्ध होते हैं तथा उनका कृत्रिम ऊष्मायन 

(incubation) किया जा सकता है। फिर परिवर्धन की क्रिया का कुक्कुट में 

सर्वाधिक अध्ययन किया गया है। विभिन्न पक्षियों की तुलनात्मक श्रौणिकी 

के अध्ययन से प्रकट होता है कि केवल कुछ मामूली अन्तरों को छोड़कर 

यह सभी पक्षियों में निश्चित रूप से समान है। पक्षियों की श्रौणिकी सामान्य 

रूप से रेप्टाइल्स की भौणिकी ने बहुत समान होती है। परिवर्धन, बिना 

डिम्भकीय अवस्था के, प्रत्यक्ष होता है



पक्षी के शुक्राणु 

पक्षियों का शुक्राणु एक गतिशील, धागे समान या कशाभी (flagellated) 

रचना है। इसके सिर (head) में एक न्यूक्लिअस होता है। आगे की ओर 

सिर पर एक नुकीला शिरस्य आवरक (cephalic covering) या शीर्षस्थ 

पिंड (apical body) जुड़ा रहता है जसे ऐक्रोसोम (acrosome) कहते हैं। 

मध्य काय (middle piece) में अम सेन्ट्रिओल एवं अक्षीय तन्तु (axial 

filament) का अग्र सिरा स्थित होते हैं। गतिशील पुच्छ (tail) में 

कोशिकाद्रव्यी आच्छद से ढँका अक्षीय तन्तु पड़ा रहता है। परन्तु पुच्छ का 

दूरस्थ सिरा बिना ढँका होता है। मुर्गे के शुक्राणु की जीवन अवधि लगभग 2 

सप्ताह होती है।


structure of egg


पक्षी या कुक्कुट के अंडे की संरचना


1. आकृति और माप 

सामान्यतया, एक अंडा प्रतिदिन की दर से दिया जाता है। एक पूर्णतया 

निर्मित और ताज़ा दिया गया अण्डा बड़ा और दीर्घवृत्तीय (elliptical) होता 

है। इसका एक सिरा दूसरे की अपेक्षा अधिक चौड़ा होता है। यह लगभग 3 

सेमी चौड़ा और 5 सेमी लम्बा होता है। जब अंडे का निक्षेपण होता है तो 

पूग ब्लैस्टुला अवस्था में होता है अथवा उसमें गैस्टुलेशन चल रहा होता है। 

चूंकि अंडे पानी के बाहर भूमि पर निश्क्षेपित किये जाते हैं, अतः उनकी 

सूखने और यांत्रिक चोटों से सुरक्षा के लिये उन पर रक्षी आवरण 

(protective envelopes) होते हैं।



2. अंड कवच 

बाहर से अंडे की रक्षा एक दृढ़, सफ़ेद या भूरा कवच (shell) करता है। 

इसका कम से कम 94% कैल्सियम कार्बोनेट द्वारा बना होता है। कवच 

सरंध्र (porous) होता है जिससे इसमें होकर 2 और CO₂ का विसरण होता 

है। नव-निक्षेपित अंडे का कवच कोमल और लचीला होता है परन्तु यह 

शीघ्र कठोर और भंगुर (brittle) हो जाता है। अपने पर्यावरण से बन्द, 

कवचयुक्त अंडा सकोश या क्लाइडॉइक (cleidoic) कहलाता है।



3. कवच कला 

कवच के ठीक नीचे एक पतली लेकिन सख्त श्वेत कवच कला होती है। यह 

अधिकांशतया किरेटिन तन्तुओं के घने जाल द्वारा बनी होती है। इसके दो 

स्तर होते हैं जो अधिकतर निकट सम्पर्क में होते हैं, परन्तु अण्डे के चौड़े 

सिरे पर एक दूसरे से पृथक् होकर एक वायु अवकाश (air space) को 

घेरते हैं। जैसे-जैसे परिवर्धन प्रगति करता है, वायु अवकाश अधिकाधिक 

बड़ा होता जाता है। अडंजोत्पत्ति के थोड़ा पहले शिशु चूज़ा वायु अवकाश 

को अपनी चोंच से बेधता है और फेफड़ों को फुलाकर अपना प्रथम श्वास

भरता है।


4. सफेदी या ऐल्बुमेन 

कवच कला के नीचे तथा पीतक के केन्द्रीय पिंड को घेरता हुआ श्वेतक, 

ऐल्बुमेन या अंडे की सफ़ेदी (white of egg) होती है। ऐल्बुमेन में 85% 

जल और प्रोटीन्स, विशेषकर ऐल्बुमिन्स (albumins) होती हैं। अन्य 

प्रोटीन्स भी होती हैं। ऐल्बुमेन के अनेक स्तर होते हैं। सबसे बाहर का 

ऐल्बुमेन अधिकतर जल-समान होता है और तरल (fluid), द्रव (liquid), 

जलीय (watery) या पतला श्वेतक (thin albumen) कहलाता है। मध्य 

स्तर का ऐल्बुमेन गाढ़ा एवं लसीला होता है तथा सघन श्वेतक (dense 

albumen) कहलाता है। सबसे भीतर का स्तर, जो केन्द्रीय पीतक को 

घेरता है, बहुत गाढ़े, लसीले ऐल्बुमेन द्वारा बना होता है। इसे श्वेतरज्जुकधर 

या कैलाज़िफेरस स्तर (chalaziferous layer) कहते हैं। यह अण्डे के 

प्रत्येक सिरे पर एक-एक स्थित, अर्थात् एक जोड़ी सर्पिल रूप से ऐंठी हुई 

रस्सियों, श्वेतक रज्जु या कैलाजी (chalazae) बनाता है। जिस विधि से वे 

बनते हैं वह अनिश्चित है, परन्तु सम्भवतया वे अंडवाहिनी में अंडे के घूर्णन 

(rotation) से उत्पन्न होते हैं। वे एक ग्लाइकोप्रोटीन, ओवोम्युकॉइड 

(ovomucoid), के तन्तुओं से बने होते हैं।


 

5. अण्डाणु 

(Ovum) मुर्गी की मुख्य अण्ड कोशिका(egg cell proper) या वास्तविक 

अंडाणु अपने विशाल पौतक अंड सहित बहुत बड़ा होता है। यह एक 

बारीक पारदर्शी पीतकी (vitelline) या निषेचन कला (fertilization 

membrane) द्वारा ढँका होता है जो पीतकी अंडाणु को चारों ओर के 

ऐल्बुमेन से पृथक् करती है। यह कला अंडाशय की पुटक-कोशिकाओं 

(follicle cells) द्वारा स्नादित प्राथमिक और द्वितीयक कलाओं के संयोग से 

बनती है। पीतक के कण, कोशिका-द्रव्य से कुछ ज्यादा सघन होने से 

अंडाणु की तली अर्थात् उसके अल्पक्रिय ध्रुव (vegetal pole) की ओर 

धँस जाते हैं। पीतक की अधिक मात्रा के कारण, मुर्गी का अंडा अतिपीतकी 

(polylecithal), गुरुपीतकी (macrolecithal), और गोलार्द्ध पीतकी 

(telolecithal) अंडे का एक चरम उदाहरण है। पीतक का संगठन समांगी 

(homogeneous) नहीं होता बल्कि श्वेत पीतक के एक केन्द्रीय फ्लास्क-

रूपी पिंड के चारों ओर संकेन्द्रीय (concentrically) व्यवस्थित पीत (yellow) और श्वेत (white) पीतक के एकान्तर स्तरों का बना होता है। 

पीत पीतक के स्तर स्वेत पीतक की अपेक्षा अधिक मोटे होते हैं। 

पीतक में अधिकतर फॉस्फोलिपिड लैसिथिन और वसा होते हैं। ठोस 

पीतक के विश्लेषण से 60% बसा और 30% प्रोटीन ज्ञात होती है। श्वेत 

पीतक में वसा तथा वसा में घुलनशील वर्णक कैरोटीन (carotene) की 

मात्रा कम होती है जो पीला रंग प्रदान करता है। पीतक में लगभग 50% 

जल होता है। श्वेत पीतक के फ्लास्क-रूपी केन्द्रीय पिंड को लैटेब्रा 

(latebra) की संज्ञा दी गई है जबकि इसके बाहरी गरदन जैसे भाग को 

लैटेब्रा की ग्रीवा (neck of latebra) कहते हैं। 

ग्रीवा कोरकबिम्ब (blastodisc) के नीचे फैलकर एक चौड़ी 

डिस्क बनाती है जिसे पैन्डर केन्द्रक (nucleus of Pander) कहते हैं। 

अण्डाणु में एक केन्द्रक होता है। यह पीतक-मुक्त कोशिकाद्रव्य की नगण्य 

मात्रा से घिरा रहता है जिसे जनन विम्ब (germinal disc), कोरक बिम्ब या 

ब्लास्टोडिस्क (blastodisc) कहते हैं। जनन बिम्ब सदैव पीतक के ऊपरी 

तत्त पर तैरता है और अंडाणु के सक्रिय ध्रुव(animal pole) को निरूपित 

करता है। पीतक और ऐल्बुमेन परिवर्धनशील भ्रूण को पोषण (प्रोटीन) 

प्रदान करते हैं। ऊष्मायन की समाप्ति के करीब कवच का कुछ भाग 

विघटित होकर कैल्सियम कार्बोनेट (CaCO3) मुक्त करता है जो 

विकासशील अस्थियों के निर्माण में प्रयुक्त हो जाता है। कवच थोडी प्रोटीन 

भी प्रदान करता है। अंडे की सफेदी या ऐल्बुमेन जल और खनिज प्रदान 

करता है, जबकि पीतक और ऐल्बुमेन दोनों से विटामिन्स प्राप्त होते हैं।



निषेचन 

(Fertilization)

अण्डोत्सर्ग (ovulation) के समय अंडाणु अंडाशय में प्राथमिक आघाडी 

(primary oocytes) के रूप में निकलते हैं। वे देहगुहा में मुक्त किये जाते 

है जहाँ से अंडवाहिनी के कोप-समान चौड़े छिद द्वारा पकड़ लिये जाते हैं। 

अण्डवाहिनी के ऊपरी भाग में उनका निषेचन होता है जहाँ मैथुन के समय 

नर पक्षी के शुक्राणु भी पहुंचते हैं। इस प्रकार पक्षियों में निषेचन आन्तरिक 

(internal) होता है। लगभग 5 या 6 शुक्राणु एक अण्डक में प्रवेश करते हैं 

(बहुशुक्राणुता) जिसमें प्रौरन दो परिपक्वता विभाजन होते हैं। 

परिणामस्वरूप बनी दोनों ध्रुवीय काय (polar bodies) विघटित होकर 

लुप्त हो जाती हैं। निषेचन के अंतर्गत केवल एक ही शुक्राणु का केन्द्रक 

मुख्य अण्डाणु (ovum proper) के केन्द्रक से समेकित होता है। शेष 

शुक्राणु अंडाणु की परिधि पर पहुंचकर नष्ट हो जाते हैं। निषेचित अण्डाणु 

या ज़ाइगोट का अंडवाहिनी में नीचे उतरने और निक्षेपित होने में 

सामान्यतया 24 घण्टे लगते हैं। नीचे उत्तरते समय उसे अंडवाहिनी को 

भित्ति द्वारा स्रावित विभिन्न प्रकार के आवरण, जैसे ऐल्बुमेन, कवच कलाएँ 

और सरंध कैल्सियमी कवच, एक के बाद एक ढक देते हैं।




ऊष्मायन या इन्क्यूबेशन


तापक्रम गिरं जाने से ताज़े दिये गये अंडे का विकास अवरुद्ध हो जाता है। 

तापक्रम 37°C से 40°C के लगभग बनाये रखने पर ही विकास पुनः 

आरम्भ हो सकता है। ऐसा जनक पक्षियों की शारीरिक ऊष्मा द्वारा ही 

संभव होता है उनमें से एक (उदा. (ialier) अव दोनों (उदा. Cha जनक 

अण्डों के ऊपर बैठते हैं। जनक पक्षियों की भगहों पर बैठने की क्रिया 

अण्डों का सेना या ऊष्मायन कहलाती है। आमापन में पक्षी के वक्ष की 

उमा द्वारा अण्डा गरम हो जाता है। कृत्रिम ऊष्मायन में, आवश्यक 

तापक्रम मुर्गी पालको द्वारा एक अत्मक या इंक्यूबेटर (incubator) में 

स्थापित किया जाता है। शिशु पक्षियों के अण्डों से बाहर निकलने 

(hatching) ऊमायन चलता है। ऊष्मायन अर्थात (incubation period) 

कबूतर में लगभग 14 दिन और चूजे में 21 दिन तक बलती है।



विदलन या खंडीभवन


Cleavage or Segmentation

निषेचन के लगभग 3 घण्टे बाद विदलन आरम्भ होता है। जैसा कि पहले 

कहा जा चुका है, अंडा देने के समय तक विदलन और आरम्भिक 

गैस्टुलेशन पूर्ण हो जाते हैं। विदलन की खाँचे पीतक की विशाल मात्रा को 

नहीं काट पाती हैं, केवल पीतक के ऊपर स्थित साइटोप्लाज्म की बनी एक 

नन्हीं-मी वृत्ताकार जनन बिम्ब (germinal disc), कोरक बिम्ब या 

ब्लास्टोडिस्क तक सीमित रहती हैं। प्रथम विदलन (first cleavage) 

संतति केन्द्रकों के मध्य से गुजरती एक उदय खाँच होती है। यह डिस्क को 

आरपार या उसकी पूरी मोटाई में नहीं काटती है। परिणामस्वरूप, डिस्क 

केवल अपूर्णतया 2 कोशिकाओं या कोरकखंडों (blastomeres) में 

विभाजित हो जाती है। द्वितीय विदलन की खाँच भी अपूर्ण और प्रथम 

विदलन के समकोण पर होती है। परिणामस्वरूप 4 कोरकखण्ड या 

ब्लास्टोमियर्स बन जाते हैं। इसके बाद अनेक अपूर्ण और अनियमित खाँचे 

तेज़ी से बनती हैं। 16-32 कोशिका बनने पर ब्लास्टोडिस्क मॉरुला 

(morula) अवस्था की संगत होती है। इस प्रकार पूरी ब्लास्टोडिस्क 

कटकर कोशिकाओं की एक परत बनाती है जिसे कोरकचर्म या 

ब्लास्टोडर्म (blastoderm) कहते हैं। बहुत से विदलन क्षैतिज होने से 

ब्लास्टोडर्म अनेक कोशिका मोटी हो जाती है। चूजे में यह आंशिक और 

सतही विदलन, जिसके परिणामस्वरूप ब्लास्टोडर्म बनता है, चक्रिकाभ या 

डिस्कॉइडल (discoidal) और अंशभंजी या मीरोब्लास्टिक (meroblastic) 

कहलाता है। इसमें अंडाणु का सर्वाधिक भाग अर्थात् पीतक, स्थाई रूप से 

अविभाजित रहता है। यह बैंकिओस्टोमा  और मेंढक 

के पूर्णभंजी (holoblastic) विदलन से भिन्न होता है जिसमें पूर्ण अंडाणु का 

विभाजन होता है। परिकोरक या पेरिब्लास्ट  नामक अखंडित 

कोशिकाद्रव्य का एक किनारे वाला क्षेत्र ब्लास्टोडिस्क को पीतक पिंड से 

जोड़कर एक संधिक्षेत्र (zone of junction) बनाता है।



कोरकभवन या ब्लास्टुलेशन


ब्लास्टोडर्म का स्वतंत्र किनारा तेज़ी से वृद्धि कर पीतक के ऊपर फैल जाता 

है। इसका केन्द्रीय भाग शीघ्र एक तरल से भरी सबजर्मिनल गुहा 

 के बनने से नीचे स्थित पीतक से पृथक् हो जाता 

है। इससे ऊपर स्थित केन्द्रीय भाग स्पष्ट और पारदर्शी दिखलाई पड़ता है 

तथा पारदर्शी क्षेत्र या एरिया पेल्यूसिडा (area pellucida) कहलाता है। 

इसके विपरीत, सीधे पीतक के ऊपर स्थित एवं उसे घेरता हुआ ब्लास्टोडर्म 

का मुद्रिका-समान सीमान्त या परिधीय क्षेत्र अपारदर्शी और श्वेत दिखाई 

देता है और अपारदर्शी क्षेत्र या एरिया ओपेका (area opaca) कहलाता है। 

बाद में पारदर्शी या पेल्यूसिड क्षेत्र मुख्य भ्रूण का शरीर बनाता है। जबकि 

अपारदर्शी या ओपेक क्षेत्र सहायक भ्रूण-बाह्य संरचनायें (extra- 

embryonic structures), जैसे योक सैक (yolk sac), बनाता है। 

सबजर्मिनल गुहा के फर्श पर अनिश्चित मूल की कुछ बड़ी पीतक 

कोशिकायें विकसित होती हैं परन्तु शीघ्र ही विलुप्त हो जाती हैं। कुछ 

कार्यकर्ताओं के अनुसार यह अवस्था ऐम्फ्रिऑक्सस और मेंढक की 

ब्लास्टुला (blastula) अवस्था की संगत होती है। उपजनन या सबजर्मिनल 

गुहा ब्लास्टोसील (blastocoel) के तुल्य, पीतक कोशिकायें मेगामियर्स के 

तुल्य और केन्द्रीय कोशिकायें माइक्रोमियर्स की तुल्य मानी जाती हैं। परन्तु, 

उपजनन गुहा वास्तविक ब्लास्टोसील नहीं होती जिससे चूज़े के भ्रूण की यह 

अवस्था कूटकोरक या | स्यूडोब्लास्टुला कहलाती है।



संभावित या अनुमानित क्षेत्र अथवा भावी मानचित्र 


भ्रूण के निर्माण में एरिया ओपेका भाग नहीं लेता है। इसलिये भावी मानचित्र 

केवल एरिया पेल्यूसिडा तक ही सीमित रहता है जिससे भ्रूण के भाग 

निर्मित होते हैं। गैस्टुलेशन के पूर्व पेल्यूसिडा क्षेत्र की बहुस्तरीय ब्लास्टोडर्म 

पुनर्व्यवस्थित होकर घनाकार एपिथीलियल कोशिकाओं का अकेला स्तर 

बनाती है जिसे अधिकोरक या एपिब्लास्ट (epiblast) अथवा बाह्यमध्यजन 

स्तर या एक्टोमीसोडमं कहते हैं। अनेक लेखकों 

(जैकब्सन, पैस्टील, स्प्रॉट, आदि) ने इसी स्तर पर भावी (prospective) या 

अनुमानित क्षेत्रों (presumptive areas) को मानचित्रित किया है जिनसे 

बाद में प्रमुख भ्रूणीय अंग निर्मित होते हैं। परन्तु भावी क्षेत्रों की ठीक 

स्थितियाँ और सीमायें ऐम्फिबिया के आरम्भिक गैस्टुला की भाँति सुनिश्चित 

नहीं होती हैं। भ्रूण के भावी पश्च छोर से आरम्भ करके, अनुमानित क्षेत्र निम्न 

प्रकार होते हैं:


(1) पश्च छोर पर स्थित एण्डोडर्म (endoderm) की एक छोटी डिस्क। इसे 

कुछ भावी मानचित्रों में नहीं दिखाया जाता है क्योंकि गैस्टुलेशन की 

प्रारम्भिक अवस्थाओं में, भावी एन्डोडर्म कोशिकाएँ शीघ्र ही नीचे 

सबजर्मिलन गुहा में अभिगमन कर जाती हैं।


(2) पार्श्व या लेटरल मेसोडर्म (lateral mesoderm) की एक पश्च चौड़ी 

पट्टी।


(3) दोनों ओर कावखंडी या सोमाइटिक पेसोडर्म 

से दिए प्रीकॉर्डर पेसोडर्म  का एक छोटा क्षेत्र।


(4) नोटोकॉर्डल मेसोडर्म (notochordal mesoderm) की एक संकीर्ण 

पट्टी।


(5) न्यूरान एवेट (neural plate) या न्यूरल एक्टोडर्म (neural ectoderm) 

का एक बड़ा नवचन्द्राकार क्षेत्र।


(6) भ्रूणीय (embryonic) या एपिडर्मल एक्टोडर्म (epidermal 

ectoderm) 

का और भी बड़ा क्षेत्र। ये सब अनुमानित क्षेत्र एरिया पेल्यूसिका के अन्दर 

होते हैं।


भूष्णीय एक्टोडर्म एरिया ओपेका की भ्रूणवाह्य एक्टोडर्म (extra-

embryonic ectoderm) से जुड़ी रहती है जो भ्रूणवाहा एण्डोडर्म (extra-

embryonic endoderm) को इकती है।



गैस्टुलेशन : एण्डोडर्म का निर्माण 


कन्दुकन या गैस्टुलेशन अंडे दिए जाने से भी पहले आरम्भ हो जाता है। 

इसमें एण्डोडर्म का निर्माण निहित होता है जिससे एकस्तरीय 

(monoblastic) भ्रूण या ब्लास्टुला द्विस्तरीय (diploblastic) 

गैस्टुला में परिवर्तित हो जाता है। गैस्टुलेशन अर्थात् भ्रूण चूजे में एण्डोडर्म 

के निर्माण की वास्तविक विधि के विषय में विभिन्न कार्यकर्ताओं में मतभेद 

है। ऐम्फिऑक्सस और मेंढक की भाँति भावी एण्डोडर्म का एक ब्लास्टोपोर 

में से अन्तर्वेशन (invagination) नहीं होता है। भावी एण्डोडर्मल 

कोशिकायें भ्रूण के पश्च छोर के निकट से, नीचे की सबजर्मिनल गुहा में 

अभिगमन या अंतर्वलन (involution) कर पूरे पेल्यूसिडा क्षेत्र में एक संबद्ध 

परत (coherent sheet) बनाती हैं। इसके अलावा, कुछ सीमा तक, 

पीतकयुक्त एकल एक्टोडर्मल कोशिकाओं के नीचे धंसने या अंतः क्रमण 

(ingression) से कोरकचर्म या ब्लास्टोडर्म की मोटाई बढ़ जाती है। अब 

आगे की दिशा में ब्लास्टोडर्म के विपटलन (delamination) या विपाटन 

(split) से बाह्य अधिकोरक, एपिब्लास्ट (cpiblast) या एक्टोडर्म 

(ectoderm) और आन्तरिक अधः कोरक, हाइपोब्लास्ट (hypoblast) या 

एण्डोडर्म (endoderm) बन जाते हैं। एपिब्लास्ट में भावी न्युरल प्लेट, 

नोटोकॉर्ड, मेसोडर्म और एक्टोडर्म स्थित होते हैं। हाइपोब्लास्ट एण्डोडर्मल 

स्तर बनता है।


एक्टोडर्म के समान एण्डोडर्म की उत्पत्ति भी दो भिन्न प्रकार से होती है। 

पेल्यूसिडा क्षेत्र से सबजर्मिनल गुहा में एकार कोशिकाओं के अभिगमन से 

बनी भ्रूणीय एण्डोडर्म (embryonic endoderm) पूण की भावी 

आहारनाल को आस्तरित करती है। जबकि, ओपेका क्षेत्र से बनी पीतकी 

(yolky) या भ्रूणवाह्य एण्डोडर्म (extra-embryonic (ndoderm) पीतक 

कोष (yolk sac) को आस्तरित करती है। बाद में, दोनों में, दोनों एक दूसरे 

की संतत हो जाती हैं।


अंडा देने के 2 या 3 घन्टों में गैस्टुलेशन पूर्ण हो जाता है। इसकी समाप्ति 

पर भ्रूण द्विकोरकी या द्विस्तरीय (diploblastic) बनकर एक बाह्य परत या 

एपिब्लास्ट तथा एक आन्तरिक परत या हाइपोब्लास्ट द्वारा निर्मित हो जाता 

है। मूल सबजर्मिनल गुहा हाइपोब्लास्ट द्वारा एक संकरे बाह्य अवकाश या 

द्वितीयक ब्लास्टोसील (secondary blastocoel) तथा एक आन्तरिक 

आरकेन्टिरॉन (archenteron) या भ्रूण की आद्य आहारनाल में 

विभाजित हो जाती है।



मेसोडर्म का निर्माण आदि रेखा अवस्था 


1. आदि रेखा का निर्माण (Formation of primitive streak)

इंक्यूबेशन द्वारा प्राप्त ऊष्मा से परिवर्धन के पुनरारम्भ के साथ-साथ 

एपिब्लास्ट की कोशिकायें सब दिशाओं से पेल्यूसिडा क्षेत्र की मध्य-रेखा की 

ओर स्पष्ट रूप से गति या सहवर्धन (concrescence) करती हैं। 

पेल्यूसिडा क्षेत्र के मध्य-पश्च सिरे पर, जो भ्रूण के पुच्छीय सिरे का प्रतीक है, 

भावी लेट्रल प्लेट मेसोडर्म कोशिकाओं के एकत्रित होने से एक चौड़ा 

स्थूलित क्षेत्र बनता है जो आद्य या आदि रेखा या प्रिमिटिव स्ट्रीक (primitive 

streak) का आरम्भ है। मेसोडर्म कोशिकाओं के अधिकाधिक जमाव से 

आदि रेखा आगे की ओर दीर्षित होकर एक स्पष्ट, काली, अपारदर्शी पट्ट या 

रेखा बनाती है।


इंक्यूबेशन के लगभग 18 घन्टे पश्चात् पेल्यूसिडा क्षेत्र का वृतीय आकार 

समाप्त होकर दीर्घित, अण्डाकार एवं नाशपाती जैसा बन जाता है जिसमें 

अगला सिरा अधिक चौड़ा होता है। इस समय तक आदि रेखा इतनी 

सुविकसित हो जाती है कि यह भ्रूण की आदि रेखा अवस्था (primitive 

streak stage) कही जाती है। रेखा की लम्बाई के साथ-साथ एक छिछली 

आदि खाँच (primitive groove) होती है जो आगे की ओर एक गोलाकार 

आद्य गर्त (primitive pit) में समाप्त होती है। गर्त के ठीक सामने एक स्पष्ट 

फुलाव या सघन बिन्दु होता है जिसे हेन्सन पर्व (Henson's node) या 

आद्य गाँठ (primitive knot) कहते हैं। यह अनुमानित नोटोकार्ड और 

न्युरल ट्यूब के फ़र्श की कोशिकाओं द्वारा बनती है। खाँच के स्थूल किनारे 

आद्य कटक या वलन (primitive ridges or folds) बनाते हैं। कोई छिद्र न 

होने पर भी आद्य रेखा और खाँच मेंढक और सरीसृपों में ब्लास्टोपोर के 

सम्मिलित ओष्ठों के तुल्य समझे जाते हैं, जबकि आद्य गाँठ ब्लास्टोपोर के 

पृष्ठ ओष्ठ को निरूपित करती है

पूर्ण विकसित आय रेखा पेल्यूसिक क्षेत्र के पश्च किनारे से आगे की ओर दो-

तिहाई दूरी तक फैली होती है, परन्तु इंक्यूबेशन के दूसरे दिन को ममाप्ति 

तक यह धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती है। इसके अवशेष कुछ धूण को पुच्छ 

कतिका में एवं कुछ अवस्करीय क्षेत्र में समाविश हो जाते हैं। 



2. मेसोडर्म का निर्माण 

आद्य रेखा पर एकत्रित भावी येसोडर्म कोशिकायें नीचे की ओर अन्तर्वलित 

होकर आद्य रेखा के दोनों ओर, एपिन्लास्ट या एक्टोडर्म एवं हाइपोब्लास्ट 

या एण्डोडर्म के बीच ब्लास्टोसील में फैल कर लेद्रास पपेट मेसोडर्म 

(lateral plate mesoderm) की परज बनाती है। अब धूण त्रिकोरकी या 

त्रिस्तरीय (triploblastic) बन जाता है क्योंकि इसमें बाह्य एक्टोडर्म, मध्य 

मेसोडर्म एवं आन्तरिक एक्टोडर्म, अर्थात् सभी तीनों जनन स्तर स्थापित हो 

जाते हैं। दो पंख-समान परतों के रूप में मेसोडमें लगभग पूरे पेल्यूसिडा 

क्षेत्र में फैल जाती है। मेसोडर्म के दो अग्र-पार्श्व श्रृंग आगे बढ़‌कर परस्पर 

मिल जाते हैं और सामने की ओर कुछ समय के लिये एक मेसोडर्म-रहित 

क्षेत्र को घेरते हैं जिसे प्राक्-उत्व या प्रोऐम्नियन कहते हैं। 

बाद में मेसोडर्म भ्रूण के ओपेका क्षेत्र पर भी फैलने लगती है जिससे 

ओपेका क्षेत्र का अधिकांश भाग भी त्रिस्तरीय हो जाता है।




नोटोकॉर्ड का निर्माण : नोटोजेनिसिस


आद्य गाँठ के ठीक सामने ब्लास्टोडर्म या एपिब्लास्ट की एक संकरी पट्टी 

भावी नोटोकॉर्ड कोशिकाओं द्वारा निर्मित होती है। ये कोशिकायें आद्य गाँठ 

के किनारे से घूमकर सबजर्मिनल गुहा में सीधी आगे की दिशा में प्रवास 

कर न्युरल प्लेट और सोमाइटिक मेसोडर्म की पट्टियों के मध्य में पहुँच 

जाती हैं। ये कोशिकायें मध्यरेखा पर एक सीधा, मोटा केन्द्रीय पुंज बनाती हैं 

जो शिर प्रवर्थ (head process) या नोटोकॉर्डल प्रवर्ध (notochordal 

process) कहलाता है। इनके रूपान्तरण के फलस्वरूप एक शलाका या 

नोटोकॉर्ड का निर्माण होता है।



न्युरल ट्यूब का निर्माण न्युरोजेनिसिस 


आद्य रेखा के एकदम सामने तंत्रिक पट्ट या न्यूरल टेट कोशिकायें (neural 

plate cells) स्थित होती हैं। जब ये कोशिकायें धंसने लगती हैं तब एक 

मेड्‌युलरी या न्यूरल ख (medullary of neural groove) बन जाती है। यह 

दोनों पारों में मेड्युलरी या न्युरल वलनों (medullary of neural folds) 

द्वारा परिबद्ध होती है। दोनों ओर के क्लन बढ़कर मध्य-पष्ठ रेखा पर 

संयुक्त होकर एक बंद तंत्रिक नाल या ज्युरल ट्यूष (neural tube) बनाते 

हैं, जो अगले सिरे पर एक तंत्रिक रंघ या न्युरोपोर (neuropore) द्वारा 

बाहर खुलती है। कुछ पक्षियों में, आद्य खाँच के अम सिरे पर एक 

अन्नार्वेशन (invagination) द्वारा तंत्रिकांत्र नाल या न्यूरेन्टेरिक नाल बन 

जाती है जिसके द्वारा न्युरल ट्यूब आरकेन्टिरॉन से संचार करती है। 

इंक्यूबेशन के दूसरे दिन न्युरोपोर बन्द हो जाता है। न्युरल ट्यूब का अम 

सिरा फैल कर प्राथमिक प्रमस्तिष्क आशय (primary cerebral vesicle) 

बनाता है। संकीर्णनों द्वारा इससे अम, मध्य और पश्च-मस्तिष्क आशय 

विकसित होते हैं। मध्य-मस्तिष्क के क्षेत्र में एक कपाल नमन (cranial 

flexure) बनने से अम-मस्तिष्क नीचे की ओर झुक जाता है। मस्तिष्क के 

पीछे, न्युरल ट्यूब स्पाइनल कॉर्ड बनाती है।



मध्यकोरकी कायखंडों का निर्माण


नोटोकॉर्ड के प्रत्येक ओर मोटी, ठोस, पृष्ठ सोमाइटिक  या 

उपाक्षीय मेसोडर्म (paraxial mesoderm) होती हैं। यह अधर-पार्श्व और 

अपेक्षाकृत पतली लेट्रल प्लेट मेसोडर्म द्वारा घिरी होती है। नोटोकॉर्ड के 

दोनों ओर, सोमाइटिक मेसोडर्म अनुप्रस्थ रूप से खंडित होकर घनाकार 

खण्डों की एक श्रेणी बनाती है जो मध्यकोरकी कायखण्ड या मेसोब्लास्टिक 

सोमाइट्स कहलाते हैं। सोमाइट्स का दिखाई 

देना भ्रूण के विखंडन (metameric segmentation) का प्रथम चिन्ह होता 

है। जैसे मेंढक में, कायखण्ड या सोमाइट्स केवल सोमाइटिक मेसोडर्म से 

बनते हैं जबकि लेट्रल प्लेट मेसोडर्म अखंडित रहती है, जो ऐम्फिऑक्सस 

से एक अन्तर होता है। कायखंडों का प्रथम जोड़ा लगभग 20 घण्टों के 

ऊष्मायन पर आद्य पंथि के थोड़ा सामने, अर्थात्, ग्रीवा क्षेत्र में बनता है। 

बाद के जोड़े प्रथम जोड़े के पीछे, सोमाइटिक मेसोडर्म के अनुप्रस्थ खंडन 

द्वारा, प्रायः एक जोड़ा प्रति घन्टा की दर से प्रकट होते हैं। इस प्रकार 

कायखंडों की संख्या से भ्रूण की आयु का अनुमान लगाया जा सकता है। 

परन्तु एक कायखण्ड के बनने का वास्तविक समय अण्डे के अण्डवाहिनी 

से नीचे उतरने में लगने वाले समय तथा ऊष्मायन के अंतर्गत तापक्रम पर 

निर्भर करता है। अतः भ्रूण की किसी विशेष अवस्था को ऊष्मायन के 

आरम्भ के बाद के लगने वाले समय के बजाय उसमें उपस्थित कायखंडों 

की वास्तविक संख्या से पुकारना अधिक उपयुक्त है। प्रथम दिन (24 घंटे) 

की समाप्ति पर 3 या 4 जोड़े कायखंड बन चुकते हैं। अन्ततोगत्वा, 52 

जोड़े कायखण्ड बनते हैं जिनमें से लगभग 10 जोड़े बाद में अपह्वासित हो 

जाते हैं। जैसे-जैसे कायखंड बनते जाते हैं, आद्य रेखा और खाँच पीछे की 

ओर हटते जाते हैं। स्कलैरोटोम्स, डर्मेटोम्स, मायोटोम्स (पेशी पट्टिकाओं) 

और नेफ़ोटोम्स का निर्माण मेंढक के टैडपोल के समान होता है जिसका 

वर्णन अध्याय 42 में पहले किया जा चुका है।



प्रगुहा या सीलोम की उत्पत्ति 


अधर पार्श्व पट्ट या लेटल प्लेट मेसोडर्म खण्डीभवन द्वारा कायखण्डों का 

निर्माण नहीं करती है। इसके बजाय यह चिरकर दो परत या स्तर बनाती है।

बाहर का कायिक (somatic) या भित्तीय स्तर (parietal layer) एक्डोडर्म 

से चिपका होता है जिसके साथ यह कायस्तर या सोमैटोप्लुअर 

 बनाता है। भीतर का अंतरंग (splanchnic) या विसरल 

स्तर (visceral layer) एण्डोडर्म के साथ मिलकर स्प्लैंक्नोप्लु अर 

(splanchnopleure) बनाता है। इन दोनों मेसोडर्मल स्तरों के बीच में 

निर्मित अवकाश या गुहा को सीलोम, अंतरंगपूर्व गुहा या स्प्लैक्नोसील 

कहते हैं। इस प्रकार सीलोम की उत्पत्ति दीर्घगुहिक होती है।

ब्लास्टोडर्म की भाँति, सीलोम भी वास्तविक भ्रूण की सीमाओं के बाहर फैल 

कर पीतक को घेर लेती है तथा भ्रूण- बाह्य प्रगुहा  या एक्सोसील बनाती है।




भ्रूण का वलित होना 


जैसा पहले कहा जा चुका है, भ्रूण संपूर्ण ब्लास्टोडर्म द्वारा नहीं बनता है। 

वास्तविक भ्रूण केवल केन्द्रीय पारदर्शी क्षेत्र (area pellucida) से बनता है 

जबकि परिधीय अपारदर्शी क्षेत्र (area opaca) से पीतक कोष एवं 

भ्रूणबाह्य संरचनाएँ बनती हैं जो भ्रूण के निर्माण में भाग नहीं लेती हैं। दोनों 

का सीमांकन ऊष्मायन के प्रथम दिन (24 घन्टे) के अंत के निकट आरम्भ 

होता है और मुख्य भ्रूण वलित होकर धीरे-धीरे पीतक कोष से पृथक् होता 

जाता है। न्युरल प्लेट के ठीक सामने पारदर्शी क्षेत्र का अग्रक्षेत्र ऊपर 

उठकर शीर्ष प्रवर्ध (head process) या शीर्ष वलन (head fold) बनाता 

है। यह क्षेत्र मेसोडर्म रहित होता है और प्राक्कल्ब या प्रोऐम्निअन 

 कहलाता है । जैसे-जैसे शीर्ष वलन न्युरल प्लेट के नीचे तथा 

पीछे की ओर वृद्धि करता है यह आरकेन्टिरॉन (मेसेन्टिरॉन) के अगले भाग 

को घेरकर तथाकथित अग्रांत्र को बनाता है जो एण्डोडर्म द्वारा 

आस्तरित होती है। फिर पार्श्व वलन (lateral folds) प्रगट होते हैं जिसके 

बाद पश्चांत्र (hind gut) सहित एक पुच्छ वलन (tail fold) प्रकट होता है। 

अब भ्रूण भ्रूणबाह्य क्षेत्र (पीतक कोष) के ऊपर टिका रहता है जिससे यह

मध्यांत्र (mesenteron) में खुलने वाले एक संकीर्ण खोखले वृन्त, 

नाभि-म्नाल या अम्बिलाइकल कॉर्ड (umbilical cord), द्वारा संलग्न रहता है।



अंगभवनया अंग बनना 


चूजे का अंगभवन मेंढक के समान होता है। चूजे के परिवर्धन में अंगभवन 

का वर्णन, ऊष्मायन (incubation) के तीसरे दिन के अंत तक अधिकतर 

अंग-तंत्र प्रकट हो जाते हैं। क्लोम कोष और क्लोम छिद्र शुरू के कुछ दिनों 

में प्रकट होते हैं परन्तु शीघ्र बन्द हो जाते हैं। ब्लास्टोडर्म के चितकबरे 

संवहनीय क्षेत्र  की स्प्लैक्निक मेसोडर्म में रुधिर 

केशिकायें (blood capillaries) विकसित हो जाती हैं। केशिकायें संयुक्त 

होकर दो बड़ी पीतक शिराएँ (vitelline veins) बनाती हैं जो 

अम्बिलाइकल कॉर्ड में होकर भ्रूण में अधर क्षेत्र से प्रवेश कर 

उसके विकसित होते हुए हृदय (heart) में पीछे से मिल जाती हैं। पृष्ठ 

महाधमनी से दो बड़ी पीतक धमनियाँ (vitelline arteries) शाखित होकर 

केशिका जाल से मिल जाती हैं। चितकबरे संवहनीय क्षेत्र के रुधिर द्वीप 

(blood islands) लाल रुधिर कणिकाओं को उत्पन्न करते हैं। दूसरे या 

तीसरे दिन दृक् आशय (optic vesicles), लेंस (lens) तथा आन्तरिक 

कर्ण (inner car) के आद्यांग विकसित होते हैं।




भ्रूणबाह्य या गर्भ झिल्लियाँ


वयस्कों की भाँति, भ्रूणों को भी सुरक्षा, भोजन और ऑक्सीजन की 

आवश्यकता होती है। निम्न वर्टिब्रेट्स अपने अंडे जल में देते हैं जो भ्रूणों को 

आवश्यक भोजन, अकार्बनिक लवण और ऑक्सीजन आदि की आपूर्ति 

करके एक अनुकूल पर्यावरण प्रदान करता है। दूसरी ओर, उच्चतर स्थलीय 

वर्टिब्रेट्स, जैसे सरीसृप और पक्षी, अपने अंडे भूमि पर देते हैं। यांत्रिक 

चोटों और निर्जलीकरण के खतरों से अंडों की रक्षा कैल्सियमी कवच करता 

है। जबकि विशेष रूप से विकसित गर्भ झिल्लियाँ भ्रूणों के पोषण, श्वसन, 

उत्सर्जन और सुरक्षा के लिये कार्य करती हैं और उन्हें पूरी तरह भूमि पर 

जीवनयापन के योग्य बनाती हैं। गर्भ झिल्लियाँ भ्रूणबाह्य ब्लास्टोडर्म से 

विकसित होती हैं और वास्तविक भ्रूण के निर्माण में भाग नहीं लेती हैं, अतः 

उन्हें भ्रूणबाह्य कलायें (extra-embryonic membranes) भी कहा जाता 

है। अपना कार्य समाप्त करने के पश्चात् वे नष्ट हो जाती हैं। भ्रूणबाह्य कलायें 

चार होती हैं (1) पीतक कोष (yolk sac), (2) उल्ब या ऐम्निॲन 

(amnion), (3) सिरोसा(serosa) या कोरिॲन (chorion) और (4) 

अपरापोषिका या ऐलेंटॉइस (allantois)। ये वर्टिबेट्स के तीन उच्चतर वर्गों 

अर्थात् रेप्टीलिया, एवीज़ और मैमेलिया, की विशेषता होती है जिससे इन 

तीनों वर्गों को एक उल्बीवर्ग या ऐम्निओटा के अन्तर्गत 

समूहबद्ध किया गया है। 


1. पीतक कोष

भ्रूण के भोजन का मुख्यस्रोत पीतक अर्थात् योक है। यह एक कोष-समान 

वेष्टन कला (investing membrane) द्वारा बिरा होता है जिसे पीतक कोष 

कहते हैं। पीतक कोष पीतक को पूर्णतया नहीं घेरता, बल्कि अधरतल पर 

एक छोटा मार्ग छोड़ देता है जिसमें से होकर बचे-खुचे ऐल्ब्युमेन का 

अवशोषण होता है।

पीतक कोष भ्रूण- बाह्य स्प्लैक्नोप्लुअर के एक स्तर, अर्थात भ्रूणबाह्य 

एण्डोडर्म द्वारा आस्तरित मेसोडर्म की स्प्लैक्निक परत, से निर्मित होता है। 

एण्डोडर्मल अस्तर पीतक को पचाता और अवशोषित करता है और 

तथाकथित पीतक-कोष पटों (yolk-sac septa) के रूप में पीतक में 

गहराई तक वलित हो जाता है। भ्रूण द्वारा पीतक को सीधे नहीं ग्रहण किया 

जा सकता। इसलिये पीतक कोष की एण्डोडर्म पाचक एन्ज़ाइम्स स्नावित 

करती है जो पीतक को घुलनशील रूप में परिवर्तित कर देते हैं। पाचन के 

उत्पाद पहले विसरण (diffusion) द्वारा भ्रूण तक पहुँचते हैं और बाद में 

स्प्लैक्निक मेसोडर्म में स्थित केशिका जाल के द्वारा पहुँचते हैं। इस प्रकार 

भ्रूण तक अवशोषित भोजन या पीतक को ढोने के लिए अॅम्बिलाइकल 

कॉर्ड द्वारा जुड़े भ्रूण और भ्रूणबाह्य क्षेत्र, दोनों में रुधिर-संवहन तंत्र शीघ्र 

प्रकट हो जाता है। चूँकि भ्रूण को पोषण प्रदान करने को पीतक धीरे-धीरे 

पचता है, अतः पीतक कोष धीरे-धीरे छोटा होता जाता है और अन्त में 

मध्यांत्र में अवशोषित हो जाता है।

पीतक कोष पीतक की रक्षा करता है, उसे सही स्थिति में बनाए रखता है 

तथा उसे पचाता और अवशोषित करता है। इस प्रकार, यह भ्रूण के पोषण 

का प्राथमिक अंग होता है।


2. ऐम्निोंन और कोरिॲन 

ऐम्निॲन और कोरिॲन साथ-साथ विकसित होती हैं। ऊष्मायन के लगभग 

प्रथम दिन से भ्रूण पीतक में धँसता प्रतीत होता है और भ्रूणबाह्य संरचनाओं 

से अधिकाधिक सीमांकित हो जाता है। भ्रूणबाह्य सोमैटोप्लुअर, अर्थात् 

एक्टोडर्म और सोमैटिक मेसोडर्म, भ्रूण के सामने और पीछे दोनों सिरों पर 

ऐम्निॲन के शीर्ष (head) और पुच्छ वलनों (tail folds) के रूप में ऊपर 

उठता है। दोनों ऐम्निओटिक वलन खोखले होते हैं। इनके भीतर का 

अवकाश या भ्रूणबाह्य प्रगुहा (extra-embryonic coelom) मेसोडर्म के 

चिरने से उत्पन्न होता है। वृद्धि करते वलन एक चाप या गुम्बद के रूप में 

भ्रूण के ऊपर मिल जाते हैं और बाद में संलीन (coalesce) हो जाते हैं। 

उनकी संधि का स्थान सीरम उत्व सम्बन्ध कहलाता है। 

आन्तरिक स्तर वास्तविक ऐम्निॲन (true amnion) कहलाता 

है जिसमें धूण की ओर एक्टोडर्म और बाहर की ओर सोमैटिक मेसोडर्म 

होते हैं। बाहरी स्तर कूट उत्ब (false amnion), सीरमी कला (serous 

membrane), जरायु या कोरिॲन (chorion) कहलाता है। इसमें एक्टोडर्म 

बाहर की ओर और सोमैटि मेसोडर्म अन्दर की ओर होते हैं। दोनों स्तर 

भ्रूण के संगत स्तरों से जुड़े होते हैं। ऐम्निॲन और कोरिॲन के बीच का 

स्थान भ्रूणबाड़ा प्रगुहा, कोरिऑनिक गुहा (chorionic cavity) या सीरम-

उल्व गुहा कहलाता है। भ्रूण और ऐम्निॲन के मध्य छूटा हुआ स्थान उत्व 

गुहा (amniotic cavity) कहलाता है, जो एक्टोडर्म द्वारा आस्तरित होता है 

और उल्ब तरल (amniotic fluid) से भरा रहता है। ऐम्निओटिक तरल में 

निलंबित भ्रूण गति करने एवं आकार बदलने के लिये स्वतंत्र होता है। सब 

स्थलीय वर्टिब्रेट्स (एवीज, रेप्टीलिया और मैमेलिया) में ऐम्निअन का 

विकसित होना अत्यन्त कार्यात्मक महत्व का होता है। यह भ्रूण के चारों 

ओर एक जलाशय प्रदान कर उसके निर्जलन के डर को दूर करता है। 

उल्ब तरल यांत्रिक झटकों को भंग करने और तापक्रम के परिवर्तनों के 

प्रभाव को कम करने में एक रक्षी गहरी (protective cushion) का कार्य 

करता है। यह जलीय गद्दी भ्रूण की क्षति से भी रक्षा करती है क्योंकि 

ऊष्मायन के समय अण्डों पर बैठी मुर्गी प्रायः अंडों की स्थिति में परिवर्तन 

या उलट-फेर करती है। कोरिॲन ऐलेंटॉइस के साथ स्वसन के लिए कार्य 

करती है, जबकि ऐम्निअन और कोरिअंन दोनों संभवतया भ्रूण को थोड़ी 

गति में रखते हुए उसे कवव और कवच कलाओं के साथ चिपकने से रोकते 

हैं। ऐम्निॲन और कोरिॲन का परिवर्धन ऊष्मायन के दूसरे दिन आरम्भ 

होता है और तीसरे दिन समाप्त हो जाता है।


3. अपरापोषिका या ऐलेन्टॉइस 

धूण के श्वसन की बढ़ती हुई आवश्यकता का सामना करने के लिए भ्रूण की 

पश्चांत्र के अधर तल से एक अंधवर्ष, सिरोसा (कोरिअंन) और ऐम्निॲन के 

मध्य, भ्रूणबाह्य प्रगुहा में वृद्धि करता है। यह आशय-समान संरचना 

अपरापोषिका या ऐलेंटॉइस होती है जो ऊष्मायन के लगभग चौथे दिन (28-

कायखंड अवस्था) प्रकट होती है। अपनी उत्पत्ति के कारण यह भीतर 

ऐन्डोडर्म से आस्तरित होती है और बाहर की ओर स्प्लैंकृनिक मेलोडर्म 

(splanchnic mesoderm) से ढँकी रहती है। इसकी गुहा आंत्र की संतत 

होती है। शुरू में यह एक छोटे अंडाकार कोष के आकार का होता है 

जिसका समीपस्थ संकरा भाग अपरापोषी वृन्स  और दूरस्थ चौड़ा भाग 

अपरापोषी आशय कहलाता है। ऐलेंटॉइस तीव्रता से वृद्धि करता है और 

दस दिन के अन्दर भ्रूण और पीतक कोष को पूर्णतया घेर लेता है। यह 

ऐम्निॲन और कोरिॲन के बीच की सम्पूर्ण धूणबाह्य प्रगुहा या सीरमी उल्बी 

गुहा को भर देता है। इसका मेसोडर्मल स्तर कोरिॲन के मेसोडर्मल स्तर 

से संगलित होकर एक संयुक्त कला, कोरियो-ऐलेंटॉइस अथवा ऐलेंटो-

कोरिॲन का निर्माण करता है।

अपरापोषिका या ऐलेंटॉइस के अनेक कार्य हैं। 


(a) श्वसन (Respiration)

ऐलेंटॉइस का प्राथमिक कार्य एक भ्रूणीय श्वसन अंग (embryonic 

respiratory organ) के समान कार्य करना है। कोरियो-ऐलेंटॉइस 

अपरापोषी शिराओं और धमनियों की केशिकाओं द्वारा अत्यन्त संवहनीय 

होता है। सरंध्र कवच और कवच कला में होकर अन्दर की ओर विसरित 

ऑक्सीजन ऐलेंटो कोरिॲन की केशिकाओं में प्रवाहित रुधिर द्वारा ग्रहण 

की जाती है और अपरापोषी शिराओं में होकर भ्रूण को प्रदान कर दी जाती 

हैं।


(b) उत्सर्जन  

ऐलेंटॉइस एक भ्रूणीय मूत्राशय (embryonic urinary bladder) की भाँति 

कार्य करता है। भ्रूणीय मूत्र (यूरिक अम्ल के ठोस क्रिस्टल) ऐलेंटॉइस में 

संग्रहीत होता रहता है और शिशु चिड़िया के निकलने पर

अंड-कवच में पीछे छोड़ दिया जाता है।


(c) नाभि-रज्जु 

ऐलेंटॉइस के पूर्णतया नष्ट हो जाने से वयस्क पक्षी में मूत्राशय का अभाव 

होता है जिससे वृक्कों के उत्सर्जी उत्पाद मल के साथ ही त्याग दिए जाते हैं।

अधर देहभित्ति के कॉमन सोमैटोप्लुअर द्वारा घिरे अपरापोषी वृन्त और 

पीतक कोष वृन्त परस्पर मिलकर नाभि रज्जु या अॅम्बिलाइकल कॉर्ड 

(umbilical cord) बनाते हैं। अंडजोत्पत्ति के समय यह कॉर्ड टूट जाता है 

और विष्ठा अवशेषों के साथ अपरापोषी आशय टूटे हुए कवच में एक 

झुर्रीदार झिल्ली के रूप में पड़ा रहता है। इस प्रकार मूत्र भ्रूण के अन्य 

भागों में जाने से रोक दिया जाता है जहाँ यह हानि पहुँचा सकता है। बाद 

में, संलगन का स्थान भर कर नाभि रज्जु शरीर पर एक स्थायी क्षत चिन्ह, 

नाभि या अॅम्बिलाइकस (umbilicus) बन कर रह जाता है।


(d) श्वेतक कोष 

तीसरे, ऐलेंटॉइस ऐम्निॲन से सहयोग करता है। चौथे, ऐलेंटॉइस श्वेतक कोष 

(albumen sac) बनाता है। अंडे की सफ़ेदी या ऐल्बुमेन तीव्रता से जल 

त्याग कर पीतक के निचले ध्रुव की ओर धंस जाता है। जैसे-जैसे कोरियो-

ऐलेंटॉइस वृद्धि करता है, यह बची हुई अंडे की ऐल्बुमेन के चारों ओर 

वलित होकर उसे एक श्वेतक कोष (albumen sac) में बन्द कर देता है जो 

एक पोषक अंग होता है। यह न केवल ऐल्बुमेन का पाचन और अवशोषण 

करता है बल्कि अपरापोषी रुधिर वाहिनियाँ इससे जल ग्रहण कर भ्रूण को 

भेजती हैं।



अंडजोत्पत्ति या स्फुटन


(Hatching)

ऊष्मायन के लगभग 21 दिन पश्चात् अंडजोत्पत्ति होती है। ऊपरी चोंच के 

सिरे पर चूज़ा एक छोटा-सा कैल्सियमी उभार, भ्रूण दंत (egg tooth) या 

चंचु श्रृंग (caruncle), विकसित करता है। अंडोभेदन के एक दिन पूर्व या 

उसी दिन, चूज़ा अपनी चोंच से कवच कला को फाड़ता है और वायु 

अवकाश की वायु को अपने नासारंचों द्वारा फेफड़ों में भरता है। फिर यह 

भ्रूण दंत के बारम्बार आघातों से कवच को तोड़कर खोलता है और ऐलेंटो-

कोरिॲन तथा ऐम्निॲन को कवच में छोड़कर स्वयं बाहर आ जाता है। नव-

अंडजोत्पन्न चूज़ा कालपूर्व प्रौढ़ (precocious) या नीड़ापाश्रयी 

(nidifugous) होता है। अर्थात्, यह पूर्णतया गीले पिच्छों से ढंका रहता है 

जो वायु के सम्पर्क में शीघ्र सूख जाते हैं, और यह चलने तथा भोजन करने 

के योग्य होता है।



पक्षियों की उत्पत्ति और पूर्वज-परम्परा


पक्षियों में उड़ान या उड्डयन की उत्पत्ति


पक्षियों का अभिगमन या प्रवास




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