पक्षियों में उड़ान या उड्डयन की उत्पत्ति कैसे हुई, How did Origin of Flight in the Birds
पक्षियों में उड़ान या उड्डयन की उत्पत्ति
Origin of Flight in the Birds
पक्षियों में उड़ान या उड्डयन की उत्पत्ति :-
कभी-कभी पक्षियों को पिच्छ या पर वाले सरीसृप कहा जाता है। परन्तु हमें
सरीसृपीय शल्कों से परों के विकास के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है, यद्यपि
शल्कों और पिच्छों के बीच की संरचनायें शुतुरमुर्ग और कुक्कुट की टाँगों
पर पाई जाती हैं। हम, वास्तव में ठीक नहीं जानते कि आर्किओप्टेरिक्स के
पूर्वजों में उड्डयन का विकास कैसे हुआ। यह सम्भव है कि - जब पूर्वज
अधिक सक्रिय एवं सम्भवतया ऊष्ण-रुधिरीय या समतापी बन रहे थे, तभी
शल्कों से पिच्छ प्रधानतः शारीरिक ऊष्मा के संरक्षण के लिये विकसित हो
गये। बाद में, सम्भवतया भूमि पर तेज़ भागने या निचली टहनियों से
आद्यांगी विसर्पण (rudimentary gliding) में स्थिरता प्रदान करने को
भुजाओं और पुच्छ पर पिच्छ आकार में बड़े हो गये।
पक्षियों में उड़ान की उत्पत्ति को समझाने के लिये विभिन्न मत प्रगट किए
गये हैं। इन मतों का आरम्भ नॉप्सा (Nopcsa) आदि के मतानुसार किसी
स्थलीय, द्विपादी, धावी पूर्वज (cursorial ancestor) द्वारा होता है अथवा,
बीबे (Becbe), ऑसबर्न (Osborn), स्टीनर (Stciner), इत्यादि के
मतानुसार किसी वृक्षवासी पूर्वज (arboreal ancestor) द्वारा होता है।
कोलंबो लीबिया : सामान्य जंगली कबूतर
दुनिया के सभी देशों के राष्ट्रीय पक्षी
उड्डयन की घावी उत्पत्ति का सिद्धान्त
नॉप्सा (Nopcsa) के अनुसार पैक्षियों में उड्डयन भूमि पर तीव्रता से दौड़ने के
परिणामस्वरूप हुआ। उसके सिद्धान्त के अनुसार पक्षियों के पूर्वज लम्बी
दुम वाले, धावी (cursorial) तथा द्विपादी जन्तु थे। वे तेज़ धावक थे जो अपने
शक्तिशाली पश्चपादों पर उछलते थे और साथ ही सहायता के लिये अपने
अग्रपादों को वायु में फड़फड़ाते थे, ठीक उसी भाँति जैसा अनेक आधुनिक
तेज़ भागने वाले पक्षी करते हैं। धीरे-धीरे उत्परिवर्तन और चयन क्रियाओं के
अंतर्गत, शल्कों के उधड़ने (fraying out) या दीर्घाकरण के फलस्वरूप पंख-
पिच्छ (quill feathers) बनने से अग्रपाद बड़े हो गये । अंत में, अग्रपाद तीव्र
दौड़ने में सहायक अंगों के स्थान पर उड्डयन के अंग या पंखों में परिवर्तित हो
गये।
उड्डयन की वृक्षवासी उत्पत्ति का सिद्धान्त
दूसरे सिद्वान्त की अवधारणा है कि पूर्वज पक्षी वृक्षवासी (arboreal) जन्तु थे।
वे वृक्षों पर चढ़ जाते थे जिनसे वे भूमि या अन्य वृक्षों पर आधुनिक
उड्डयनशील गिलहरियों की भाँति विसर्पण करते थे। ऑसबर्न (Osborn) इस
वृक्षवासी, विसर्पी पूर्वज को चतुष्पादी अवतरणी (parachuting) जन्तु
समझता है। बीबे (Beche) विवरण के मतानुसार पूर्वज पक्षियों में चारों टागों
पर पीछे को दिष्ट के मनजूद थे। ऐसा पक्षी वृक्ष या किसी उच्च स्थान से
सम्भवतया पर्याप्त दूर तक वायु में विसर्पण के योग्य था। सम्भवना समय
बीतता गया. अम्रपाद धीरे-धीरे बड़े होते गये और आखिर में परत्रों में
परिवर्तित हो गये, जो जन्तु को उड्डयन में धामे रखने के योग्य थे। पश्चपादों के
पिच्छ लुप्त हो गये और पुच्छ छोटी हो गई, जैसा आधुनिक पश्तियों में
दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार, उड्डयन आरोहण और विसर्पण के
परिणामस्वरूप विकसित हुआ था।
स्टीनर (Steiner) मानता है कि पूर्वज जन्तु के पश्चपाद उछलने के लिये
रूपान्तरित हो गये थे, जबकि अग्रपाद चढ़ने तथा वायु में छलांग के पश्चात
शरीर का सन्तुलन बनाये रखने में काम आते थे।
उड्डयन की उत्पत्ति का मध्यमार्गी सिद्धान्त
ग्रेगोरी (Gregory) जैसे पक्षियों की द्वैत (dual) या दोहरी उत्पत्ति में विश्वास
करने वाले, कहते हैं कि कुछ पक्षी वृक्षवासी और अन्य धावी पूर्वजों से
विकसित हुए हैं।
पक्षी एक उड़न-मशीन के समान (Birds as a Flying Machine)
पक्षी उड़नशील वर्टिब्रेट्स हैं। इनकी उड़ने की क्षमता अनेक कारकों के
परिणामस्वरूप होती है; जैसे भार की किफायत, दृढ़ता और स्थायित्व, तथा
और अनेक संरचनाओं का हल्कापन ।
उड्डयन या उड़ान एक अत्यन्त स्वैच्छिक क्रिया होती है। बड़े पक्षी उड़ान
भरने से पूर्व पर्याप्त अग्रवर्ती संवेग (forward momentum) प्राप्त करने के
लिये तेज़ी से दौड़ लगाते हैं या तैरते हैं। छोटे पक्षी प्रायः अपनी टाँगों के द्वारा
तेज़ उछाल लेकर पंखों को फड़फड़ाते हैं। पक्षी एक गुब्बारे या "हवा से
हल्की मशीन" के बजाय एक वायुयान या "हवा से भारी मशीन" के सिद्धान्त
से उड़ता है। ऐसी मशीन की विविध आवश्यकतायें पक्षी निम्नलिखित विधियों
से पूरी करते हैं
केन्द्रीकरण
कुछ संरचनाओं के अपहासन और अन्य के उन्मूलन द्वारा आन्तरिक
संरचनायें भली-भाँति केन्द्रित होती हैं। उदाहरणातया, अन्य कशेरुकियों के
सिर में पाये जाने वाले भारी दाँत हल्की श्रृंगी चोंच द्वारा प्रतिस्थापित हो गये
हैं, जबकि पीसने के पत्थरों द्वारा आस्तरित एक दृढ़, पेशीय, केन्द्रीय पेषणी
(gizzard) वही कार्य करती है जो पूर्वज पक्षियों में कभी दाँत करते थे। भारी
घिसटने वाली (trailing) सरीसृपीय पुच्छ भैंस कर एक अपहासित कंकालीय
ठूंठ बन कर रह गई है, जिससे भार केन्द्रित होता है। उसके स्थान पर, हल्के
और वायु प्रतिरोधी पिच्छों की एक द्वितीयक पुच्छ बन जाती है जो उड़ान के
समय एक दिन्नियंत्रक या रडर (rudder) की भाँति कार्य करती है। सिर छोटा
और हल्का होता है तथा गरदन लम्बी होती है और उड्डयन में आकुंचित की
जा सकती है। इस प्रकार देह अक्ष छोटी हो जाती है और गुरुत्व-केन्द्र के
भली प्रकार आलम्बी पंखों के नीचे आ जाने से धारारेखित शरीर पूर्णतया
संतुलित बना रहता है।
हल्कापन और दृढ़ता
इनकी प्राप्ति हल्के परन्तु मज़बूत, वातिल (pneumatic) कंकालीय ढाँचे द्वारा
होती है जो एक खोखले शहतीर के सिद्धान्त (hollow girder principle) पर
निर्मित होता है।
आलम्ब हेतु तल
Planes for support
वायुयान की दूसरी आवश्यकता उसमें आलम्ब लिये तलों या पंखों के का
होना है। एक पक्षी में पंख और दुम ऐसे तल हैं जो आलम्ब के लिये चौड़ा
धरातल प्रदान करते हैं। पक्षी के पंख का कार्य दोहरा होता है। यह न केवल
पंख होता है, बल्कि, एक वायुयान के नोदक (propeller) का भी कार्य करता
है। एक वायुयान और पक्षी, उड़ने के लिये भौतिक सिद्धान्तों का पालन
करते हैं। पंख की वक्र ऊपरी उत्तल सतह पर से वायु अधिक वेग-सहित
निकलती है, जिसके फलस्वरूप पंख के नीचे अधिक दाब बन जाता है
जिससे वायुवाहित रहने के लिये आवश्यक उत्थान (lift) मिलता
है। आधुनिक वायुयानों में, कुछ सीमा तक पंखों को परिवर्तित किया जा
सकता है। परन्तु, इस संबंध में पक्षी अधिक सर्वतोमुखी (versatile) होते हैं।
क्योंकि उनके पंख और पुच्छ वायु की दिशा और शक्ति में परिवर्तनों के प्रति
पर्याप्त समंजनों के योग्य होते हैं।
प्रतिपालित शक्ति
Sustained power
ऐसी मशीन में एक अन्य आवश्यकता बडी मात्रा में प्रतिपालित शक्ति पैदा
करने की होती है। इसे उड्डयन पेशियों और हृदय के बड़े आकार और रुधिर
के अधिक प्रभावी वातन द्वारा प्राप्त किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप
तीव्र और सतत ऑक्सीकरण होता है। ऊर्जा का पर्याप्त और सतत उत्पादन
पाचन और निष्कासन प्रक्रियाओं की प्रभावकता के कारण संभव होता है।
परिचालन और संतुलन
Steering and Balancing
इन्हें संधियों और पेशियों की सहायता से पंखों और पुच्छ के समंजन
(adjustment) द्वारा किया जाता है। balancing पंख उड्डयन के सक्रिय
साधन होते हैं। पक्षी के पार को बहन करने के लिये पंख उदम विधि से
आघात करते हैं. और पक्षी को आगे ले जाने के लिये वे तिर्यक विधि से चलते
हैं। उनके सशक्त अधोमुखी प्रहारों से पक्षी का शरीर वायु में ऊपर उठता
है, जबकि उनकी विभिन्न झुकावदार और तिरछी गतियों उड़ने के ढंग में
परिवर्तन करने में सहायता करती है।
पंखे के समान व्यवस्थित पुच्छ-पिच्छ उड़ान की दिशा में परिवर्तन के लिये,
अचानक उड़ान को रोकने के लिये, और पक्षीसादन (perching) में प्रति-
संतुलन के लिये एक रडर के समान प्रयुक्त होते हैं। उड़ान के मार्ग की
दिशा-नियंत्रण के लिये पुच्छ फैलायी-समेटी, उठाई-गिराई तथा झुकायी जा
सकती है।
उड्डयन की क्रियाविधि
Mechanism of Flight
सिद्धान्त या यांत्रिकी (Principle or mechanics): वायुगतिकी
या वायु की गति का विज्ञान एक कठिन विज्ञान है। एक
उड़ता हुआ वायुयान तथा एक उड़ता हुआ पक्षी, दोनों एक से भौतिक
नियमों का पालन, करते हैं। मछली प्रत्यक्ष या सीधी गति (direct
movement) के सिद्धान्त पर तैरती है। तैरते समय यह एक प्रतिरोधक
अर्थात् जल के विरुद्ध टकराकर आगे बढ़ती हैं। लेकिन एक पक्षी अप्रत्यक्ष
या परोक्ष गति (indirect movement) के सिद्धान्त पर उड़ता है। यह वायु को
हटाता है, जो अपने विस्थापन (displacement) से पक्षी को आगे बढ़ाती है।
पंखों की मार से विस्थापित वायु तरंगें उत्पन्न करती है जो पक्षी को ऊपर
रखती हैं और उसे आगे बढ़ाती हैं, जिसका परिणाम उड्डयन होता है। न्यूटन
(Newton) के तीसरे नियम के अनुसार, वायु का प्रतिक्रिया-बल गतिमान
पंखों द्वारा वायु पर पड़ने वाले बल के बराबर और विपरीत होता है।
पक्षी का पंख एक साधारण वायु-पर्णिका (air foil), तल अथवा वायुयान के
पंख जैसा नहीं है। यह एक वायुपर्णिका की भाँति उत्थापक तल (lifting
surface) और आगे को गति के लिये नोदक (propeller), दोनों का कार्य
करता है। इसका अगला किनारा मोटा तथा पिछला किनारा पतला और
गुंडाकार होता है। आड़ी काट में इसकी ऊपरी सतह उत्तल व धारारेखित
तथा निचली सतह चपटी या तनिक अवतल होती है। जब वायु कुछ तिरछे
पंख के पार चलती है, तो वायु का प्रवाह उसके ऊपरी उत्तल तल पर निचले
अवतल की अपेक्षा अधिक तीव गति से चलता है। भौतिकी के बर्नूली के
नियम (Bernoullig Law) के अनुसार वायु की गति में अन्तर के
परिणामस्वरूप पंख के ऊपरी तल पर निचले तल की अपेक्षा वायु दाब में
कमी हो जाती है। बर्नूली के नियम का कथन है कि एक तरल प्रवाह में
सर्वाधिक वेग (velocity) वाले स्थान पर सबसे कम दाब होता है। उड्डयन में
लागू यह मूल भौतिक सिद्धान्त सर्वप्रथम 1738 में स्विस गणितज्ञ बर्नूली
(Bernoulli) द्वारा खोजा गया था। इस प्रकार उत्पन्न दो प्रकार के बल, पंख
के ऊपर चूषण (suction) और पंख के नीचे उपरिमुखी उछाल (upward
thrust), पंख को ऊपर उठाते हैं। फलस्वरूप, पक्षी ऊँचा उठकर आगे तथा
ऊपर की दिशा में गति करता है। वायु भी पंख को क्षैतिज रूप से पीछे को
धकेलती है जो रोकने या कर्षण (drag) द्वारा पक्षी की गति को मन्द करने
का प्रयत्न करती है। इस प्रकार, पंख पर पड़ने वाले बल को दो अवयवों में
बाँटा जा सकता है, वायु प्रवाह के प्रति लंब एक उदग्र उत्थान अवयव (lift
component), तथा वायु प्रवाह के समानान्तर एक पश्च कर्षण अवयव (drag
component)। पक्षी को उड़ने के लिये, उत्थान बल उस पर पड़ने वाले
गुरुत्व बल, अर्थात् उसके भार के बराबर होना चाहिये। विविध कारक
उत्थान बल को बढ़ाते हैं, जैसे पंख के तल क्षेत्र या विस्तार में वृद्धि, और पंख
के आर पार वायु प्रवाह की चाल में वृद्धि। यदि पंख का कोण अत्यधिक बड़ा
हो जाता है, अर्थात् जब पंख बहुत तिरछा हो जाता है, तब पंख के ऊपर के
निम्न दाब के क्षेत्र की वायु में भंवर बन जाती है जिससे विक्षोभ (turbulence)
अर्थात् प्रेरित-कर्षण (induced drag) उत्पन्न हो जाता है। परिणामस्वरूप,
उत्थान समाप्त हो जाता है, पंख अनियंत्रित हो जाते हैं, गति मन्द हो जाती है
और पक्षी पृथ्वी की ओर सीधे नीचे गिरने लगता है। कुछ पक्षी अवरोहण
(dive) या झपटने से पूर्व जानबूझ कर स्तम्भन (stalling) या धीमे होने का
उपयोग करते हैं। परन्तु अवतरण (landing) या नीचे उतरते समय पक्षी को
गिर कर टकराने से बचने के लिये बिना स्तम्भन के मंद होना पड़ता है। यह
अनेक विधियों द्वारा विक्षोभ घटाकर किया जाता है। उकाब, गिद्ध, गौरैया,
आदि जब पक्षीसादन के लिये मंदन करते हैं तो उनके प्राथमिक पिच्छ
अच्छी प्रकार से फैल जाते हैं। इस प्रकार इन पिच्छों के अग्र किनारों पर
अवकाश या खाँचे (slots) बन जाती हैं। ये खाँचे बरनूली प्रभाव प्रदर्शित
करते हुये वैन्दुरी नलियों (Venturi tubes) का कार्य करती हैं। वायु उनके
बीच से अधिकाधिक वेग से दौड़ती है, जिसके कारण मंदतर अवरोहण गति
पर अधिक उत्थान उत्पन्न होना संभव होता है। कुछ प्राथमिक पिच्छों के
पिच्छफलक (vanes) खाँचों के आकार को बढ़ाने के लिये घटे हुए या
कोरखाँची (emarginated) हो सकते हैं। वैन्दुरी प्रभाव सहित खाँचा उत्पन्न
करने की दूसरी विधि कूटपक्ष (bastard wing) या पक्षिका (alula) को ऊपर
उठाना है जो कि हस्तांगुष्ठ (pollex) पर पिच्छों का एक पृथक् गुच्छा होता है।
कुछ पक्षी अवरोहण के समय पुच्छ-पिच्छों को फैलाकर या नीचे झुकाकर
अतिरिक्त उत्थान प्राप्त करते हैं। पुच्छ इस प्रकार एक ब्रेक (brake) तथा
एक उच्च-उत्थान व कम-चाल वायु-पर्णिका (air foil), दोनों का कार्य करती
है।
उड्डयन की विधियाँ
Modes of Flight
पक्षियों में उड्डयन की 3 या 4 विधियाँ मिलती हैं, और सभी विधियाँ एक ही
पक्षी में विभिन्न समय पर प्रयुक्त हो सकती हैं। उड्यन की सभी विधियों या
प्रकारों में पूँछ एक दिन्नियन्त्रक या रडर (rudder) की भाँति शरीर के
आलम्बन और संतुलन में सहायता करती है।
पंख फड़फडाना या फ्लैपिंग
Flapping
यह उड़ान की सर्वाधिक सामान्य या साधारण विधि है। प्रायः सभी पक्षी पंखों
को ऊपर-नीचे फड़फड़ाकर उड़ते हैं। अधिकतर पक्षी उड़ने के अधिकांश
समय पंख फड़फड़ाते हैं। यह क्रिया, जो तेज़ गति से पुनरावृत्त होती है, पक्षी
को वायु-वाहित (air-borne) रहने तथा वायु में आगे बढ़ने के योग्य बनाती है।
पंखों की बनावट वायुगतिकी (aerodynamics) के ठोस सिद्धान्तों पर
आधारित होती है। पंख न केवल उत्थान (lift) प्रदान करते हैं। बल्कि नोदक
(propeller) की भाँति भी कार्य करते हैं। प्रत्येक फड़फड़ाहट में पंखों का
एक प्रभावी (effective) या शक्तिशाली प्रहार (power stroke) या अधोघात
(down stroke), तथा एक पुनः प्राप्ति प्रहार (recovery stroke) या उर्ध्वघात
(upstroke) होता है।
अघोघात
Downstroke
शुरु में पंख उदग्र खड़े और पूरी तरह फैले होते हैं। अधोघात में पंख तिर्यक
रूप से आगे नीचे एवं पीछे गति करते हैं, जबकि उनके दूरस्थ भाग ऊपर
मुड़े रहते हैं। प्राथमिक पिच्छ, दृढ़तापूर्वक परस्परव्यापी (overlapping)
रहते हैं और वायु को एक बन्द या अवरुद्ध तल प्रदान करते हैं। इस प्रकार
उत्थान और आगे बढ़ना, दोनों संभव होते हैं।
उर्ध्वघात
Upstroke
उर्ध्वघात या पुनः प्राप्ति प्रहार के समय, पंख अंशतः वलित होते हैं, तथा
उनके प्राथमिक पिच्छ फैलकर वायु को आर-पार निकलने देते हैं, जिससे
उनको सरलता-पूर्वक ऊपर उठाया जा सकता है इस प्रकार पंख उन्हें
ऊपर तथा नीचे चले जाते हैं फ्लैपिंग के परिमाण स्वरूप पक्षी वायु में थम
रहकर आगे बढ़ता है कबूतर अपने पंख प्रति सेकंड आठ बार फड़फड़ाता
है अनेक शिकारी पक्षी, लहटोरे (shrikes), कुररी या गंगाचील (terns),
किलकिले (kingfishers), इत्यादि अपने पंखों को अत्यन्त तीव्र गति से
फड़फड़ाकर हवा में स्थिर बने रहते हैं। इस प्रकार, वे आगे न बढ़ कर
केवल गुरुत्व-बल (force of gravity) के विरुद्ध कार्य करते हैं। इसे पवित्र
आत्मा मुद्रा (holy ghost posture) कहते हैं।
विसर्पण या मथन
Gliding or skimming
उड्यन की सरलतम और संभवतया सबसे आद्य विधि विसर्पण है। अनेक
बार द्रुतगति से फड़फड़ाकर कुछ पक्षी अपने पंखों को फैलाकर गतिहीन
थामे रहते हैं और पर्याप्त दूरी तक उन्हें वगैर फड़फड़ाये विसर्पण करते हैं।
विसर्पण अपनी गति के लिए, पूर्व आघातों द्वारा अर्जित वेग (velocity),
अथवा ऊँचे तल से निचले तल तक उतरने, अथवा वायु-तरंगों के उपयोग
पर निर्भर करता है। विसर्पण दो प्रकार के बलों के फलस्वरूप होता है।
उत्थान (lift) जो पक्षी को ऊपर रखता है, तथा कर्षण (drag) जो उसकी
गति को मंद करता है। जबतक पक्षी के भार से उत्थान बल अधिक होता है,
पक्षी वायु में ऊपर उठता रहता है। लेकिन, गतिज ऊर्जा (kinetic energy)
धीरे-धीरे स्थितिज ऊर्जा (potential energy) में बदल जाती है जिससे पक्षी
धीमा हो जाता है। विसर्पण-उड्डयन केवल अल्पकालिक होता है; पक्षी शीघ्र
वेग या ऊँचाई खो देता है। विसर्पण-उड्डयन सागर-तटीय पक्षियों द्वारा भूमि
पर उतरते समय; बतखों, गंगाचिलियों (gulls) और बगुलों में पानी पर
उतरते समय ; अबाबीलों (swallows) और बतासियों (swifts) में हवा में;
कबूतरों में अपने अड्डे (loft) से भूमि पर आते समय ; या बाज़ में अपने
शिकार पर झपटते समय, सरलता से देखा जा सकता है। कुछ मामलों में,
तेज हवा चलने के समय, पक्षी अपने पंखों को अंशतः झुका लेता है और
पवन द्वारा अपने को दोहने देता है। इस प्रकार के उडड्यन को नम्न विसर्पण
(flex gliding) कहा जाता है।
विडयन या सेलिंग
Soaring or sailing
ऊँची उड़ान या विडयन उड़ान की अत्यन्त विलक्षण और विशिष्ट विधि है।
यह बड़े पंख-विस्तार के पक्षियों, जैसे ऐल्बेट्रॉस, गिद्ध, पेलिकन, उकाब,
बाज़, कौआ, इत्यादि द्वारा प्रदर्शित की जाती है। पक्षी बहुत ऊँचाई पर, वगैर
पंखों को चलाये, बड़े गोल चक्कर लगाता है। पक्षी गतिज ऊर्जा की हानि
बिना ऊपर उठता है।
स्थिर विडयन
Static soaring
गर्म जलवायु में, चील, बाज़ और गिद्ध, सूर्य से तपी भूमि के ऊपर उठने
वाली गर्म वायु-तरंगों, अर्थात् तापीय या ऊष्पीय पवनों (thermals), का
उपयोग करते हैं। ऊष्मीय पवन गर्म हवा के एक बड़े बुलबुले की भाँति
ऊपर उठता है। इसका वेग इतना अधिक होता है कि इसमें चक्कर काटता
हुआ पक्षी भी निरंतर ऊपर उठता चला जाता है। खड़ी चट्टान जैसे
अवरोधक के ऊपर से जाने के लिए फुल्मर (fulmar) उदय वायु-तरंगों का
सहारा लेता है।
इस भाँति स्थिर विडयन करने वाले स्थलीय पक्षियों के पंख अपेक्षाकृत छोटे
किन्तु चौड़े होते हैं। गर्म वायु-तरंगें पक्षी को नीचे गिरने की अपेक्षा अधिक
तेज़ी से ऊपर ले जाती हैं। स्थिर हवा में यही पक्षी नीचे गिरने लगता है।
उड़ान मंद गति से होती है। पंखों में बहुत सी झिरियाँ बनाकर, विशेषकर
शीर्ष के समीप, अतिरिक्त उत्थान (additional lift) प्राप्त किया जाता है।
सक्रिय विडयन
Dynamic soaring
समुद्री पक्षी, जैसे पेट्रल और ऐल्बेट्रॉस, समुद्र-तल के ऊपर ऊँचाइओं पर
वायु की गति में होने वाली तेज़ी का उपयोग सक्रिय विडयन में करते हैं।
उनके पंख लम्बे और पतले होते हैं। ऐल्बेट्रॉस समुद्र के ऊपर घंटों बिना पंख
फड़फड़ाये विसर्पण करता है। नीचे की ओर विसर्पण करते समय यह
पर्याप्त मात्रा में संवेग (momentum) अर्जित कर फिर से ऊपर उठ जाता है।
मँडराना
Hovering
यह फड़फड़ाने या फ़्लैपिंग उड्डयन का एक विलक्षण रूपान्तर है। मर्मर या
गुंजन पक्षियों (humming birds) में कंपन उड्डयन (vibration flight) अथवा
मंडराना पाया जाता है। इसमें शरीर सीधा तना रहता है जबकि पक्षी भूमि के
ऊपर किसी वस्तु या एक पुष्प के ऊपर बिना गति के एक ही स्थान पर, वायु
में संतुलित मँडराता रहता है। कभी-कभी पक्षी पीछे की ओर भी उड़ता है।
उसके पंखों के सिरे आभासी रूप से 8 का अंक बनाते हुए हिलते हैं। ऐसा
करना अग्रपादों के कंकाल के विशिष्ट आकार के कारण संभव होता है।
पक्षियों में वायवीय या उड्डयन अनुकूलन
Aerial or Flight Adaptations in Birds
वर्टिब्रेट्स में पक्षी कदाचित् सर्वाधिक विशिष्टीकृत जन्तु हैं। उनके संगठन
का प्रत्येक भाग उनकी वायवीय जीवन-पद्धति से प्रभावित लगता है।
यंग (Young, 1958) गलत नहीं है जब वह पक्षियों को "वायु का स्वामी"
कहता है। व्यावहारिक रूप से उनका कोई अंग या तंत्र ऐसा नहीं है जो
उड्डयन के लिये रूपान्तरित नहीं हुआ है। उड्डयन की माँग के कारण, उनके
कंकाल हल्के किन्तु मजबूत होते गये हैं, माँस-पेशियाँ शक्तिशाली परन्तु
बोझा नहीं होतीं, पिच्छ देह-ऊष्मा का संरक्षण करते हैं और साथ ही उड़ान
के समय उत्थान एवं नोदन प्रदान करते हैं, तथा उनके नेत्र पूरे प्राणि-जगत्
में सर्वाधिक तेज़ होते हैं। निम्नलिखित विवरण सही-सही दर्शाता है कि
अपनी शारीरिकी, भ्रौणिकी, कार्यिकी और पारिस्थितिकी द्वारा पक्षी अपनी
वायवीय जीवन-पद्धति के प्रति कितने अनुकूलित हैं।
बाह्य अनुकूलन
External adaptations
1. आकृति (Shape) पक्षी के शरीर की आकृति इसके समस्त अनुकूलनों के
निष्कर्ष को दर्शाती है। इसका पूर्णतया धारारेखित एवं तुर्क-रूपी शरीर वायु
को न्यूनतम प्रतिरोध प्रदान करने के लिये अभियोजित (designed) है।
इसीलिये, यह वायु में उसी प्रकार सुविधापूर्वक नोदित होता है जैसे मछली
पानी में बिना प्रयत्न के तैरती है।
2. संहत शरीर (Compact body): पृष्ठ ओर हल्का परन्तु मज़बूत और
अधर-ओर भारी, संहत शरीर वायु में संतुलन बनाये रखने में सहायता करता
है। पंखों का वक्ष पर ऊपर की ओर संलग्न होना, फेफड़ों और वायुकोशों
जैसे हल्के अंगों की उच्च स्थिति, एवं दोनों पंखों के संलग्न-स्थल की मध्य-
रेखा और परिणामस्वरूप निम्नस्थ गुरुत्वकेन्द्र के नीचे भारी पेशियों, उरोस्थि
और पाचन अंगों की नीची और मध्य स्थिति भी महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक तथ्य
हैं।
3. पिच्छों का देह-आच्छद (Body covering of feathers) : पिच्छ या पर
पक्षियों के नैदानिक लक्षण हैं क्योंकि किसी अन्य जन्तु-समूह ने उन्हें
विकसित नहीं किया है। चिकने, घनिष्ठतापूर्वक जुड़े और पीछे को दिष्ट देह-
पिच्छ शरीर को धारारेखित और घर्षण को न्यूनतम बनाकर उसके वायु में से
गुज़रने में भी सहायता करते हैं। हल्के पिच्छ शरीर को चारों ओर से ढकने
वाली वायु का एक बड़ा कम्बल सा बनाकर रोके रखते हैं और शरीर की
उत्प्लावकता (buoyancy) को बहुत बढ़ा देते हैं। पिच्छों का कुचालक
आवरण शरीर को पूर्णतया ऊष्मा-रोधी बना देता है और ऊष्मा की हानि को
रोकता है, जो पक्षी को अधिक ऊँचाइयों पर अत्यधिक शीत को सहन करने
तथा एक स्थिर तापक्रम बनाये रखने में सक्षम करता है।
4. अग्रपाद पंखों में रूपान्तरित (Forclimbs modified into wings) :
अप्रपाद अद्वितीय और शक्तिशाली अंगों, अर्थात् पंखों में परिवर्तित हो गये
हैं। विशेष उड्डयन पेशियों से सज्जित ये अद्भुत रूप से निर्मित संरचनायें
वायु में नोदन के साधन के रूप में विकसित की गई हैं। पंखों के लम्बे
उड्डयन पिच्छ पक्षपिच्छ या रेमिजीज़ (remiges) कहलाते हैं। प्रत्येक
पक्षपिच्छ या रीमेक्स (remex) का फैला हुआ कलामय भाग या पिच्छफलक
(vane) उड्डयन में वायु पर प्रहार करने के लिये एक लचीला और संतत तल
बनाता है। पंख के उड्डयन पिच्छ पक्षी को वायु में थामने के लिये एक चौड़ा
तल बनाते हैं। एक मोटे मज़बूत अग्र किनारे, उत्तल ऊपरी तल और अवतल
निचले तल सहित पंख का विशेष आकार वायु के दाब में ऊपर कमी और
नीचे वृद्धि तथा पीछे न्यूनतम विक्षोभ (turbulence) उत्पन्न करता है। यह
पक्षी को उड्डयन में आगे और ऊपर उड़ने में सहायता करता है।
5. पंखों के रूपान्तर (Modifications of wings) : छोटे गोल पंख पेड़-
पौधों के इधर-उधर पंखों को तेज़ी से फड़फड़ा कर उड़ने वाले पक्षियों; जैसे
बटेर, गौरैया आदि की विशेषता होते हैं। खुले आसमान में सक्रियतापूर्वक
उड़ने वाले पक्षियों; जैसे बाज़, कबूतर, अबाबील, सी-गल, इत्यादि के पंख
लम्बे और पतले होते हैं। विडयन-पक्षियों; जैसे गरुड़, शिकरा, आदि के पंख
चौड़े व लम्बे होते हैं। गोताखोर पक्षियों; जैसे पेंग्विन, ऑक तथा अन्य में,
चप्पू-जैसे पंख होते हैं। पेंग्विन की तैराकी जल के भीतर उड़ने की भाँति है,
जिसमेंटाँगें केवल परिचालन में अथवा कभी-कभार नीचे जाने के लिए ऊपर
की दिशा में प्रहार करने में प्रयुक्त होती हैं। स्थलीय पक्षी; जैसे फ़ेज़ेन्ट्स और
फ़ाउल, जो एक बार में बहुत कम दूरी तक उड़ पाते हैं, छोटे पंख वाले होते
हैं। धावक पक्षी, जैसे शुतुरमुर्ग, रौआ, और छोटे के पंख अपहासित अथवा
समानीत होते हैं। हंस और राजहंस अपने पंखों का उपयोग आत्मरक्षा और
लड़ाई में करते हैं।
6. छोटी पुच्छ (Short tail): छोटी पेशीय पुच्छ जिस पर पंखे की भाँति
व्यवस्थित अनेक लम्बे, मजबूत परन्तु हल्के पुच्छ-पिच्छ या रेवट्राईसिज़
(rectrices) होते हैं; उड्डयन में परिचालन (steering), अचानक उड्डयन को
रोकने और पक्षिसादन में प्रति-संतुलन के लिये एक दिक्-नियंत्रक (rudder)
की भाँति कार्य करती है।
7. पुच्छ के रूपान्तर (Modifications of tails): खुले वातावरण में रहने
वाले पक्षियों, जैसे अबाबील, बतासी, और बतख़ों में, दुम छोटी होती है।
लेकिन वृक्षों और झाड़ियों के पक्षियों, जैसे तोतों और नीलकण्ठों आदि में,
दुम साधारणतया लम्बी होती है। कबूतरों की दुम चौड़ी होती है जिससे
अचानक उड़ान बंद की जा सकती है। कठफोड़वा तथा अन्य पश्चियों में, जो
खड़ी सतहों पर चढ़ते हैं, पुच्छ-पिच्छों के कांड (shafts) सख्त और सिरों पर
नुकीले होते हैं जो पक्षी के शरीर को कार्य करते समय थामे रखने में
सहायता करते हैं।
8. चोंच (Beak): अप्रपादों का पंखों में परिवर्तन होने से चोंच की उपस्थिति
उचित रूप से क्षतिपूर्ति कर देती है। भारी दाँत अनुपस्थित होते हैं तथा मुख
से अपेक्षाकृत एक हल्की व श्रृंगी चोंच निकली रहती है जो वस्तुओं को
उठाने के लिये चिमटी के रूप में प्रयोग की जाती है। भोजन प्राप्त करने के
अतिरिक्त, चोंच घोंसला बनाने में भी प्रयुक्त होती है जो कार्य अन्य जन्तुओं
में अग्रपादों से किया जाता है।
9. गतिशील ग्रीवा और सिर (Mobile neck and head): पक्षियों की ग्रीवा
बहुत लम्बी और लचीली होती है। चूँकि पक्षियों की चोंच खाने, पिच्छ-प्रसाधन
(preening), घोंसला बनाने, आक्रमण व सुरक्षा, तथा समान कार्यों में प्रयुक्त
होती है, अतः ग्रीवा की सचलता और सिर की स्वतंत्र गतिशीलता बड़ी
महत्त्वपूर्ण होती हैं।
10. द्विपादी प्रचलन (Bipedal locomotion) : अग्रपादों के बिल्कुल
उपलब्ध न होने से, शरीर के सम्पूर्ण भार के संतु लन और आलम्बन के लिये,
तथा भूमि या जल में प्रचलन के लिये पश्चपाद या टाँगें धड़ के कुछ आगे से
निकलती हैं। द्विपादिता (bipedality) भी पक्षियों की ऐसी ही विशेषता है
जैसी कि उड्डयन, क्योंकि सभी उड्डयनहीन पक्षियों ने दो टाँगों पर चलने के
अभ्यास को बनाये रखा है। टाँगें अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत भी होती हैं।
11. अध्यावरण (Integument) :
ढीली त्वचा उड्डयन के लिये एक आवश्यक परिवर्तन है। यह कंकाल-
पेशीन्यास की विस्तृत गतियों के लिये उत्तरदायी है।
आंतरिक अनुकूलन
Internal adaptations
पक्षी के सम्पूर्ण आन्तरिक शारीर में अनेक रूपान्तर होते हैं जो उसे उड्डयन
के अनुकूल बनाते हैं।
1. उड्डयन की बड़ी पेशियाँ (Large muscles of flight) : पौठ को पेशियाँ
अत्यन्त अपह्वासित होती हैं लेकिन वक्ष को उडूयन पेशियाँ अत्यन्त विकसित
और पक्षी के कुल भार के छठे भाग के बराबर होती हैं। एक विशाल बृहत्
अंस- पेशी (pectoralis major) पंख को अवनत या नीचा करती है। एक लघु
अंसपेशी (pectoralis minor) पंख को उत्था पित या ऊँचा उठाती है। इसका
कंडरा ह्यूमरस के सिर के पृष्ठतल से जुड़ने के लिये त्रिअस्थिक रंघ
(foramen trio- ssoum) के बीच से होकर ऊपर जाता है। कम महत्त्व की
कुछ अन्य उड्डूयन पेशियाँ भी होती हैं।
2. पक्षिसादन (Perching) पक्षी के पश्चपाद उसके वृक्षवासी जीवन के भली-
प्रकार अनुकुल होते हैं। उनकी पेशियाँ भली-भाँति विकसित होती हैं और
पक्षिसादन में सहायता करती हैं। जैसे ही पक्षी वृक्ष पर बैठता है, टाँगों के
झुकने से आको- चनी कंडराओं (flexor tendous) का खिचाव होता है
जिससे पादांगुष्ठ स्वतः नमन कर पक्षिसाद या पर्च को जकड़ लेते हैं। इस
प्रकार विश्राम करता या सोता हुआ पक्षी स्वतः अपने पर्च या अड्डे से जकड़ा
रहता है।
3. अन्त: कंकाल (Endoskeleton): उड़ान या उड्डयन के लिये अनेक
अनुकूलन पक्षियों के कंकाल में स्पष्टतया दिखाई पड़ते हैं। "खोखले-शहतीर
सिद्धान्त" (hollow-girder principle) पर, पदार्थ की न्यूनतम मात्रा से
निर्मित अस्थियों के संगलन से मज़बूती के साथ हल्केपन का गठजोड़ होता
है, जो सफल उड्डयन की आवश्यकताओं में से एक है। अधिकतम अस्थियाँ
वातिल (pneumatic) होती हैं और अस्थिमज्जा के स्थान पर वायुकोशों द्वारा
भरी होती हैं। करोटि की अस्थियाँ हल्की होती हैं और उनमें से ज्यादातर
आपस में दृढ़तापूर्वक जुड़ी होती हैं। वक्षीय पर्शकाओं के अंकुशी प्रवर्ध
(uncinate processes), शारीरिक द्रव्यमान का केन्द्रीकरण कर उड्डयन के
लिये आवश्यक सघनता उत्पन्न करने में सहायता करते हैं। कशेरुकाओं के
संगलन के कारण कशेरुक दंड के पृष्ठ-भाग को दृढ़ता पंखों को क्रिया के
लिये एक सुदृढ़ आलम्बक (fulcrum) प्रदान करती है। विषमगर्ती
कशेरुकायें अधिक लचक प्रदान करती हैं और सारे पक्षी अपनी गरदन को
180° तक घुमा सकते हैं जो शरीर के सब भागों में पिच्छ-प्रसाधन में
सहायता करता है। पुच्छ-कशेरुकाओं का लघुकरण और पुच्छफाल
(pygostyle) के बनने से वायु में स्थिरता प्राप्त होती है। श्रोणि (pelvis) और
सिन्सेक्रम (synsacrum) का संगलन (fusion) टाँगों को दृढ़ सलगन
(attachment) प्रदान करता है, चलते समय शरीर के भार को सहारा देता है
और उतरते समय लगने वाले झटके को प्रभावहीन बनाता है। प्यूबोस और
इस्किया अस्थियों के मध्य-अधर संधान (mid-ventral symphysis) के नहीं
होने से आंतरांगों का अधिक पश्च विस्थापन संभव होता है। इसके
फलस्वरूप शरीर का गुरुत्व केन्द्र खिसक कर पश्चपादों के अधिक निकट
पहुँच जाता है। यह कैल्सियम-कवचों सहित बड़े अंडे देना भी संभव बना
देता है। दूरस्थ टॉर्सल्स और मेटाटॉर्सल्स के संगलन से बना टॉरसो-
मेटाटॉर्सस तथा समीपस्थ टॉर्सल्स का टिबिआ के निचले सिरे से जुड़ कर
बना टिबिओ-टार्सस टाँगों को द्विपादौ चाल के लिये शक्तिशाली बनाने में
सहायता करते हैं। उरोस्थि (sternum) बहुत प्रसारित होती है और
उड्डयनशील पक्षियों में प्रमुख उड्नुयन-पेशियों की संलग्नता के लिये एक बड़े
मध्य-अधर कटक या नौतल (keel) सहित होती है, जबकि शुतुरमुर्ग जैसे
दौड़ने वाले पक्षियों में यह नौतल-रहित होती है। T-रूपी गर्डर के आकार
वाली उरोस्थि उदरीय आंतरांगों को आलम्ब भी प्रदान करती है।
4. पाचन तंत्र (Digestive system): पक्षियों में उपापचय की दर बहुत
अधिक होती है, भोजन की आवश्यकतायें अधिक होती हैं और पाचन तीव्र
होता है। उनके भोजन का कैलोरीमान या मूल्य अधिक होता है, और
न्यूनतम अपच अपशिष्ट सहित अधिकांश भोजन प्रयुक्त हो जाता है।
परिणामस्वरूप, पाचन तंत्र संहत (compact) परन्तु प्रभावी होता है।
मलाशय छोटा होता है क्योंकि मल-पदार्थ अपेक्षाकृत कम होता है। चूंकि
उड़नशील जन्तुओं को मल-पदार्थ के आधिक्य (excess) से भारी नहीं होना
चाहिये, अतः उसका तुरन्त विसर्जन कर देते हैं।
5. वायुकोश और श्वसन (Air sacs and respiration): पक्षियों के
लचकहीन फेफड़ों की संपूर्ति वायुकोशों के एक विलक्षण तंत्र द्वारा होती है,
जो फेफड़ों से निकलकर आन्तरिक अंगों के बीच उपलब्ध समस्त स्थान,
यहाँ तक कि खोखली अस्थियों की गुहाओं को भी घेर लेते हैं। वायु-कोश
फेफड़ों के अधिक पूर्णवातन को निश्चित करते हैं, और आन्तरिक स्वेदन
(internal perspiration) में सहायता कर देह-ताप के नियं- त्रण में सहायता
करते हैं। पक्षियों के फेफड़े प्रत्येक श्वास के साथ पूर्णतया रिक्त हो जाते हैं;
वहाँ अवशिष्ट वायु (residual air) बाकी नहीं बचती, जिससे श्वसन अधिक
प्रभावी रूप से सम्पन्न होता है।
उड़ते समय, पंखों की गतियाँ वायु-कोशों को दबाकर और फैलाकर श्वसन
में योगदान करती हैं; इस प्रकार किसी अन्य समय की अपेक्षा उड़ते समय
पक्षी अधिक सुविधापूर्वक श्वसन करते हैं।
6. ऊष्ण रुधिर समतापता (Warm bloodedness) : पक्षी समतापीय जन्तु
होते हैं। उनके उच्च शरीर-ताप (40°-46° से) के लिये रुधिर का पूर्ण वातन
उत्तरदायी है जो उड़ान हेतु अधिक समय तक ऊर्जा के निरन्तर उत्पादन के
लिये एक आवश्यकता है।
7. परिसंचरण तंत्र (Circulatory system): तीव्र उपा- पचय और
समतापता के लिये ऑक्सीजन की अधिक आपूर्ति और एक सक्षम
परिसंचरण तंत्र की आवश्यकता होती है। तद्नुसार, पक्षियों का हृदय
अपेक्षाकृत बड़ा और पूर्णतया चार कक्षों का बना होता है। यह रुधिर के द्वि-
परिसंचरण (double circulation) सहित बहुत दक्षता से कार्य करता है।
पक्षियों के रुधिर की लाल रुधिर कणिकाओं में हीमोग्लोबिन की अधिक
अनुपात में उपस्थिति भी उसके शीघ्र और पूर्ण वातन के लिये उत्तरदायी है।
8. यूरिकाम्ल-उत्सर्गी उत्सर्जन (Uricotelic excretion): पक्षियों में
मूत्राशय नहीं पाया जाता, जो अन्य जन्तुओं में अस्थायी रूप से मूत्र के संग्रह
के लिये होता है। इसके अति रिक्त उत्सर्गी तरल का जल वृक्कों की वृक्क
नलिकाओं और अवस्कर के कॉप्रोडियम में पुनरवशोषित होता है। परिणाम-
स्वरूप अर्द्ध-ठोस उत्सर्ग बनता है जिसमें मुख्य रूप से अविलेय यूरिकाम्ल
और यूरेट्स होते हैं जो तुरत निष्कासित हो जाते हैं। ये लक्षण शरीर का
अनावश्यक भार घटाने में सहायता करते हैं।
9. मस्तिष्क और संवेदी अंग (Brain and sense organs): सरीसृपों और
अधिकतम स्तनधारियों के विपरीत, पक्षी संसार से प्रमुख सम्पर्क के लिये
गंध की अपेक्षा अपनी दृष्टि पर निर्भर होते हैं। तद्नुसार उनके नेत्र बड़े होते
हैं, और मस्तिष्क में बड़ी दृक-पालियाँ सुविकसित दृष्टि के संगत होती हैं।
नेत्र सिर के बड़े भाग को घेरते हैं और अक्सर दोनों नेत्र मिलकर मस्तिष्क
की अपेक्षा भारी होते हैं। नेत्रों में तेज़ी से समंजन की क्षमता भी भली-भाँति
विकसित होती हैं क्योंकि, उड़ते समय पक्षियों को दूर दृष्टि से निकट दृष्टि में
शीघ्र परिवर्तन करना आवश्यक होता है। अत्यधिक विकसित और सवलित
सेरिबेलम (cerebellum) पक्षियों में पाई जाने वाली संतुलन की सूक्ष्म संवेदना
और पेशीय समन्वय की विशाल क्षमता का द्योतक होता है। सेरिब्रम
(cerebrum) में कॉर्पस स्ट्राइएटम (corpus striatum) का अत्यधिक विकास
भी उड्डयन में स्थिरता प्राप्ति के लिये असाधारण युक्ति-चालन
(manoeuvrability) में वृद्धि करता है।
10. एकल अंडाशय (Single ovary): मादा पक्षी में केवल बायीं ओर के
एकल क्रियाशील अंडाशय की उपस्थिति भी भार में कमी करती है जो
उड्डयन के लिये आवश्यक है।
कोलंबो लीबिया : सामान्य जंगली कबूतर
दुनिया के सभी देशों के राष्ट्रीय पक्षी
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